Pages

Sunday, 27 November 2022

क्लास-10 अध्याय-13 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव

 क्लास-10 अध्याय-13 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव


विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव की खोज सन् 1820 में वैज्ञानिक हैंस क्रिश्चियन ऑर्स्टेड ने की । इन्होंने ने अकस्मात् ही देखा कि धातु के चालक से विद्युत धारा प्रवाहित कराने पर दिक्सूचक सुई विक्षेपित होती है । इन्हीं के सम्मान में चुंबकीय क्षेत्र की तीव्रता का मात्रक ऑर्स्टेड रखा गया ।

⦁ दिक्यूचक सूई- यह एक छोटी छड़ चुंबक के समान होती है । यह एक ऐसी युक्ति होती है जो दिशा का ज्ञान कराती है । चुंबकीय दिक्सूचक उत्तरी ध्रुव दिशा की ओर संकेत करता है । यह यंत्र क्षैतिज दिशा का ज्ञान करवाता है ।
“समान ध्रुवों में परस्पर प्रतिकर्षण और असमान ध्रुवों में परस्पर आकर्षण होता है” ,यह चुंबकीय दिक्सूचक का सिद्धांत है ।
⦁ दिक्सूचक सूई का विक्षेपित होना –
यह एक छोटी छड़ चुंबक के समान होती है । जब इसे धातु के तार में प्रवाहित विद्युत धारा के समीप लाते है तो विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव के कारण दिक्सूचक सूई पर एक बलयुग्म कार्य करता है , जिसके कारण दिक्सूचक सूई में विक्षेप उत्पन्न होता है ।

⦁ चुंबक-

वह पदार्थ या वस्तु जो चुंबकीय क्षेत्र उत्पन्न करे और अन्य चुंबक या चुंबकीय पदार्थों को अपनी ओर आकर्षित या प्रतिकर्षित करे ,उसे चुंबक कहते है ।
चुंबक के दो ध्रुव होते है –
1. उत्तर दिशा की ओर संकेत करने वाले ध्रुव को उत्तरोमुखी ध्रुव अथवा उत्तर ध्रुव (N) कहते है ।
2. दक्षिण दिशा की ओर संकेत करने वाले ध्रुव को दक्षिणोमुखी ध्रुव अथवा दक्षिण ध्रुव (S) कहते है ।
⦁ चुंबकीय क्षेत्र- किसी चुंबक के चारों ओर का वह क्षेत्र जिसमें उसके बल का संसूचन किया जाता है, उस चुंबक का चुंबकीय क्षेत्र कहलाता है ।
⦁ चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का निरूपण-

ड्रॉइंग बोर्ड पर एक सफेद कागज लगाते है । इसके बीचोंबीच एक छड़ चुंबक को रखते है । अब लौह चूर्ण को चुंबक के चारों ओर समान रूप से छितरावक की सहायता से छितराते (बिखराते) हैं तो हम देखते हैं कि लौह चूर्ण स्वयं चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के अनुदिश संरेखित हो जाताहै ,इसे ही चुंबकीय चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं निरूपण कहते है ।
⦁ चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के गुण या विशेषताएं या गुणधर्म-

1. चुंबक के बाहर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा उत्तरी ध्रुव से दक्षिणी ध्रुव की ओर होती है ।
2. चुंबक के भीतर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा दक्षिणी ध्रुव से उत्तरी ध्रुव की ओर होती है ।
3. ये सदैव बंद वक्र बनाती है अर्थात् ये वक्राकार होती है ।
4. ये परस्पर एक दूसरे को कभी नहीं काटती है ।
5. जहाँ चुंबकीय क्षेत्र रेखाएं अपेक्षाकृत अधिक निकट होती है ,वहाँ चुंबकीय क्षेत्र अधिक प्रबल होता है ।
6. जहाँ चुंबकीय क्षेत्र रेखाएं अपेक्षाकृत दूर-दूर होती है ,वहाँ चुंबकीय क्षेत्र दुर्बल होता है ।
⦁ दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम-
जब दक्षिण-हस्त का अंगुठा विद्युत धारा की दिशा में होता है तो अंगुलियाँ चालक के चारों ओर चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा में लिपट जाती है ,इसे ही दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम कहते है ।

इस प्रकार हम दक्षिण-हस्त अंगुष्ठ नियम की सहायता से किसी धारावाही चालक में उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं की दिशा ज्ञात कर सकते है ।
⦁ किसी विद्युत धारावाही चालक के कारण चुंबकीय क्षेत्र- किसी धारावाही चालक में चुंबकीय क्षेत्र की दिशा या पैटर्न को ज्ञात किया जा सकता है । इसे हम निम्न क्रियाकलापों (प्रयोगों) की सहायता से समझ सकते है –
1. सीधे चालक से विद्युत धारा प्रवाहित होने के कारण चुंबकीय क्षेत्र-

किसी सीधे धारावाही चालक तार के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र संकेंद्र वृतों के रूप में होता है । जब चालक तार समीप वाले संकेंद्र वृत के किसी बिन्दू P पर दिक्सूचक को रखते है तो दिक्सूचक अधिक विक्षेप उत्पन्न करता है लेकिन जब दिक्सूचक को अधिक दूरी पर स्थित संकेंद्र वृत के किसी बिन्दू Q पर रखते है तो दिक्सूचक का विक्षेप घट जाता है । अतः हम कह सकते है कि चालक तार के समीप उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र प्रबल होता है व दूर जाने पर घटता जाता है क्योंकि चालक तार के समीप संकेंद्र वृत छोटे व पास-पास होते है जबकि दूर स्थित संकेंद्र वृत साइज में बड़े व दूर-दूर होते है ।
2. विद्युत धारवाही वृताकार पाश के कारण चुंबकीय क्षेत्र –

दक्षिण हस्त अंगुष्ठ नियम की सहायता से यदि दाहिने हाथ की अंगुलियाँ तार के ऊपर इस प्रकार लपेटी जाएँ कि अंगुठा तार में प्रवाहित धारा की दिशा में हो , तब अंगुलियों के मुड़ने की दिशा चुंबकीय क्षेत्र को प्रदर्शित करेगी ।
अतः वृताकार पाश के अन्दर चुंबकीय क्षेत्र मेज के तल के लम्बवत् तथा उर्ध्वाधरतः नीचे की दिशा में है जबकी पाश के बाहर चुंबकीय क्षेत्र मेज के लम्बवत् तथा उर्ध्वाधरतः ऊपर की ओर क्रियाशील होगा ।
3. परिनालिका में प्रवाहित विद्युत धारा के कारण चुंबकीय क्षेत्र –

पास-पास लिपटे विद्युतरोधी ताँबे के तार की बेलन की आकृति की अनेक फेरों वाली कुंडली को परिनालिका कहते है ।
किसी विद्युत धारावाही परिनालिका के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं का पैटर्न चित्र में दर्शाए गए पैटर्न के समान होता है । यह पैटर्न छड़ चुंबक के कारण उत्पन्न चुंबकीय क्षेत्र रेखाओं के पैटर्न के समान होता है ।
परिनालिका के भीतर चुंबकीय क्षेत्र रेखाएँ समांतर सरल रेखाओं की भाँती होती है । यह निर्दिष्ट करता है कि किसी परिनालिका के भीतर सभी बिन्दूओं पर चुंबकीय क्षेत्र समान होता है अर्थात् परिनालिका के भीतर एकसमान चुंबकीय क्षेत्र होता है ।

 विद्युत चुंबक –

परिनालिका के भीतर उत्पन्न प्रबल चुंबकीय क्षेत्र का उपयोग किसी चुंबकीय पदार्थ जैसे नर्म लोहे को परिनालिका के भीतर रखकर चुंबक बनाने में किया जा सकता है । इस प्रकार बने चुंबक को विद्युत चुंबक कहते है ।

⦁ चुंबकीय क्षेत्र में किसी विद्युत धारावाही चालक पर चुंबकीय बल-

चुंबकीय क्षेत्र में किसी विद्युत धारावाही चालक पर लगने वाले चुंबकीय बल को फ्लेमिंग के वामहस्त (बायाँ हाथ ) नियम की सहायता से ज्ञात कर सकते है ।

इस नियम के अनुसार –
1. बाएँ हाथ की तर्जनी, मध्यमा व अंगुठे को इस प्रकार फेलाते हैं कि तीनों परस्पर लंबवत रहे ।
2. अंगुठा चुंबकीय बल को , तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र व मध्यमा विद्युत धारा की दिशा को दर्शाते है ।
इस ही वाम हस्त का नियम कहते है ।

⦁ फ्लेमिंग का दक्षिण हस्त नियम –

इस नियम के अनुसार-
1.दाएँ हाथ तर्जनी, मध्यमा व अंगुठे को इस प्रकार फेलाते हैं कि तीनों परस्पर लंबवत रहे ।
2. तर्जनी चुंबकीय क्षेत्र को , मध्यमा चालक में प्रेरित विद्युत धारा तथा अंगुठा चालक की गति की दिशा को दर्शाते है ।

⦁ गैल्वेनोमीटर-

यह एक ऐसा उपकरण है जो किसी परिपथ में विद्युत धारा की उपस्थिति को संसूचित करता है ।

⦁ विद्युत मोटर-

विद्युत मोटर एक ऐसी युक्ति होती है जिसमें विद्युत ऊर्जा को यांत्रिक ऊर्जा में रूपांतरण होता है ।
विद्युत मोटर का उपयोग विद्युत पंखों ,रेफ्रिजरेटरों, विद्युत मिश्रकों ,वॉशिंग मशीन, कंप्यूटरों तथा MP-3 प्लेयरों आदि में किया जाता है ।

विद्युत मोटर की कार्य प्रणाली –

विद्युत मोटर में विद्युतरोधी पदार्थ की एक आयताकार कुंडली होती है,जो चुंबकीय क्षेत्र के दो ध्रुवों के मध्य इस प्रकार व्यवस्थित होती है कि इसकी AB व CD भुजाऐं चुंबकीय क्षेत्र के लंबवत रहे । कुंडली के दोनों सिरे विभक्त वलयों के दो अर्धभागों P व Q से संयोजित होते है । इन अर्धभागों की भीतरी सतह विद्युतरोधी होती है तथा धुरी से जुड़ी होती है । P तथा Q क्रमशः स्थिर चालक ब्रशों X व Y से संपर्कित रहते है । दोनों चालक ब्रश X व Y विद्युत स्रोत( विद्युत बैट्री) से जुड़े होते है ।
जब धारा प्रवाहित होती है तो यह X से होते हुए भुजा AB में पहुँचती है ,तो इस भुजा पर नीचे की ओर बल आरोपित होता है । आरोपित बल की दिशा फ्लेमिंग के वाम हस्त नियम की सहायता से ज्ञात करते है । जब धारा भुजा CD में आती है तो धारा की दिशा बदल जाती है जिससे लगने वाले बल की दिशा परिवर्तित होकर ऊपर की ओर हो जाती है ।
इस प्रकार किसी अक्ष पर घूमने के लिए स्वतंत्र कुंडली तथा धुरी वामावर्त घूर्णन करते है । आधे घूर्णन में Q का संपर्क ब्रश X से तथा P का संपर्क ब्रश Y से हो जाता है । अतः कुंडली में विद्युत धारा उत्क्रमित होकर पथ DCBA के अनुदिश प्रवाहित होती है जिससे AB व CD भुजाओं पर लगने वाले बलों की दिशा भी उत्क्रमित हो जाती है । अतः कुंडली तथा धुरी उसी दिशा में अब आधा घूर्णन और पूरा कर लेती है । प्रत्येक आधे घूर्णन के पश्चात विद्युत धारा के उत्क्रमित होने का क्रम बार-बार चलता रहता है । जिसके फलस्वरूप कुंडली तथा धुरी का निरंतर घूर्णन होता रहता है ।

⦁ व्यवसायिक विद्युत मोटरों में निम्न परिवर्तन किये जाते है –

1. स्थायी चुंबकों के स्थान पर विद्युत चुंबक प्रयोग किये जाते है ।
2. विद्युत धारावाही कुंडली में फेरों की संख्या अधिक होती है ।
3. कुंडली नर्म लोहे क्रोड पर लपेटी जाती है ।

⦁ दिक् परिवर्तक –

वह युक्ति जो परिपथ में विद्युत धारा के प्रवाह को उत्क्रमित कर देती है , उसे दिक् परिवर्तक कहते है । जैसे विद्युत मोटर में विभक्त वलय दिक् परिवर्तक का कार्य करते है ।

⦁ आर्मेचर-

नर्म लौह क्रोड व उस पर लपेटी गई कुंडली दोनों मिलकर आर्मेचर कहलाते है ।

⦁ प्रत्यावर्ती धारा –

ऐसी विद्युत धारा जो समान काल -अंतरालों के पश्चात अपनी दिशा में परिवर्तन कर लेती है ,उसे प्रत्यावर्ती धारा (ac) कहते है । जो युक्ति इस धारा को उत्पन्न करती है उसे ac जनित्र कहते है ।

⦁ दिष्ट धारा –

ऐसी विद्युत धारा जो समय के साथ अपनी दिशा परिवर्तित नहीं करती है ,उसे दिष्ट धारा (dc) कहते है । जो युक्ति इस धारा को उत्पन्न करती है उसे dc जनित्र कहते है ।

.विद्युत जनित्र- विद्युत जनित्र में यांत्रिक ऊर्जा का उपयोग चुंबकीय क्षेत्र में रखे किसी चालक को घूर्णी गति प्रदान करने में किया जाता है , जिसके फलस्वरूप विद्युत धारा उत्पन्न होती है । इसे विद्युत जनित्र का सिद्धांत कहते है ।
विद्युत जनित्र की कार्य प्रणाली –

चित्रानुसार विद्युत जनित्र में एक आयताकार कुंडली ABCD होती है, जिसे स्थायी चुंबक के दो ध्रुवों के बीच रखा जाता है । इस कुंडली के दोनों सिरे वलय R1 व R2 से संयोजित होते है । दोनों वलय धुरी के साथ संयोजित होती है । वलय R1 व R2 क्रमशः दो स्थिर चालक ब्रशों B1 व B2 से संपर्कित रहती है और दोनों ब्रशों को गैल्वेनोमीटर से संपर्कित कर दिया जाता है ।
जब धुरी को बाहरी यांत्रिक कार्य की सहायता से घुमाया जाता है तो कुंडली की AB भुजा ऊपर की ओर के व CD भुजा नीचे की ओर के चुंबकीय क्षेत्र को काटती हुई गति करती है । फ्लेमिंग के दक्षिण- हस्त नियम की सहायता से दोनों भुजाओं में धारा की दिशा ज्ञात की जा सकती है । अतः धारा ABCD दिशा में प्रवाहित होगी ।
अर्धघूर्णन के पश्चात AB भुजा नीचे की ओर तथा CD भुजा ऊपर की ओर गति करेगी, जिससे कुंडली में प्रवाहित होने वाली धारा की दिशा परिवर्तित होकर DCBA के अनुदिश हो जाती है ।
अतः इस प्रकार प्रत्येक आधे घूर्णन के पश्चात विद्युत धारा की दिशा क्रमिक(लगातार) बदलती रहती है । और यह धारा गैल्वेनोमीटर में विक्षेप उत्पन्न करती है ।
यदि कुंडली में फेरों की संख्या बढ़ा दी जाए है तो शक्तिशाली विद्युत धारा उत्पन्न की जा सकती है ।
ऐसी विद्युत धारा जो अपनी दिशा समय के साथ परिवर्तन कर लेती है ,उसे प्रत्यावर्ती धारा (ac) कहते है । जो युक्ति इस धारा को उत्पन्न करती है उसे प्रत्यावर्ती जनित्र( ac जनित्र) कहते है ।

⦁ वैद्युत चुंबकीय प्रेरण- वह प्रक्रम जिसके द्वारा किसी चालक के परिवर्तित चुंबकीय क्षेत्र के कारण अन्य चालक में विद्युत धारा प्रेरित होती है , उसे वैद्युत चुंबकीय प्रेरण कहते है ।

अथवा

⦁ घरेलु विद्युत परिपथ –
हम अपने घरों में विद्युत ऊर्जा की आपूर्ति मुख्य तारों (जिसे मेंस भी कहते है ।) से प्राप्त करते है । घरों में विद्युत ऊर्जा आपूर्ति के इस परिपथ को ही घरेलु विद्युत परिपथ कहते है ।

घरेलु विद्युत परिपथ में तीन प्रकार के तार काम आते है –
1. विद्युतन्मय तार (धनात्मक तार)- इस तार पर लाल रंग का विद्युतरोधी आवरण होता है ।
2. उदासीन तार(ऋणात्मक तार) – इस तार पर काले रंग का विद्युतरोधी आवरण होता है ।
3. भूसंपर्कित तार – इस तार पर हरे रंग का विद्युतरोधी आवरण होता है । इस तार को घर के निकट भूमि के भीतर बहुत गहराई पर स्थित धातु की प्लेट से संयोजित करते है । इस तार का उपयोग विशेषकर विद्युत इस्त्री ,टोस्टर, मेज पंखा ,रेफ्रिजरेटर आदि की सुरक्षा के उपाय के रूप में किया जाता है ।



No comments:

Post a Comment

क्लास-10 अध्याय-13 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव

  क्लास-10 अध्याय-13 विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव विद्युत धारा के चुंबकीय प्रभाव की खोज सन् 1820 में वैज्ञानिक हैंस क्रिश्चियन ऑर्स्टेड ने...